कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षण संस्थानों के साथ पुस्तकालय का रिश्ता बेहद गंभीर और संजिदा है। हम पुस्तकालय को विलगा कर शिक्षण संस्थानों की कल्पना नहीं कर सकते। पुस्तकालय दरअसल पठन-पाठन, सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को काफी हद तक प्रभावित करती हैं। पुस्तकालय सिर्फ किताबों को वर्गीकृत कर आलमारियों में सजाने की जगह नहीं है। बल्कि किताबों के प्रयोग करने वालों तक ज्ञान और जानकारी के विस्तार का मंच भी है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आज भारत में पुस्तकालयों की स्थिति बेहद चिंताजनक है। अव्वल तो स्कूलों में पुस्तकालय के नाम पर कुछ आलमारियों में किताबों को कैद रखा गया है और उसे पुस्तकालय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। वहीं ऐसे स्कूलों की संख्या लाखों में है जहां न पुस्तकालय है और न पुस्तकों के रख रखाव के लिए कोई व्यक्ति। किसी एक शिक्षक को किताबों को संभालने की अतिरिक्त जिम्मेदारी दे दी गई है। जिन्हें यह जिम्मेदारी मिलती है वो भविष्य में कोई समस्या न पैदा हो जाए इसलिए किताबों पाठकों को देने में परहेज करते हंै। अखबार, किताबें सिर्फ प्रधानाचार्य, व प्रिय शिक्षकों को ही इश्यू की जाती हैं। बच्चे बस ललचायी नजरों से आलमारियों को देखकर संतुष्ट हो लेते हैं। जबकि पुस्तकें बच्चों और पाठकों के लिए ही होती हैं न कि तालों में बंद रखने के लिए। किताबों की महत्ता पाठक के हाथ में ही होती है। लेकिन खो जाने, फट जाने के डर से पुस्तकों को पाठकों तक न पहंुचने देना सरासर गलत है।
एस आर रंगनाथन ने भारत में पुस्तकालयों की दुनिया को व्यवस्थित आकार दिया। रंगनाथन का वर्गीकरण सिद्धांत आज भी लाखों पुस्तकालयों में इस्तमाल में आ रहे हैं। रंगनाथन का मानना था कि हर किताब पाठकों के लिए है। हर किताब का एक पाठक होता है। पुस्तकालय एक विकासशील संस्था है। इसका अर्थ यह हुआ कि किताबें यदि छपती रहेंगी तो उसके पाठक भी निश्चित ही होंगे। जब किताबें होंगी, पाठक होंगे तो पुस्तकालय भी समाज में रहेगा। लेकिन यदि नजर उठा कर देखें तो आज शहर, कस्बे, महानगर की जिंदगी से पुस्तकालयों का गायब होना आम घटना है। नए नए शहर बसाने की योजना में पुस्तकालय के लिए कोई जगह नही होती। नोएडा, गुडगांव में शहर के विकास पर नजर दौड़ाएं तो वहां स्वीमिंग पुल, गोल्फ कार्ट, मल्टिप्लेक्स, शाॅपिंग कम्प्लेक्स आदि का निर्माण तो दिखाई देता है लेकिन उस नगर निर्माण में पुस्तकालय के लिए कोई जगह नहीं है।
संभव है भवन, नगर निर्माण कंपनियों को लगता है कि इंटरनेट के युग में कितने घर-परिवार ऐसे होंगे जो किताबें पढ़ेंगे। जब हर चीज नेट पर उपलब्ध है। लेकिन वे भूल जाते हैं कि पुस्तकें हमारी जीवन की न मिटने वाली चाह है। यदि किताबें उपलब्ध हों तो पाठक भी मिल जाते हैं। जब आसपास किताबें ही नहीं होंगी तो पाठक बेचारे लाचारी में नेट पर किताबें खोलने पर मजबूर होंगे। दिल्ली की सरकारी लाईब्रेरी अपनी बदहाली के दौर से गुजर रही है। वहां के कर्मचारी, किताबों को कोई संरक्षण देने वाला नहीं है। अत्यंत दुर्लभ किताबें यहां बिना सही रख रखाव की खराब हो रही हैं। उन्हें बचाने और संरक्षित करने के प्रति स्थानीय और राज्य सरकार की उदासीनता भी दिखाई देती है।
स्कूलों और काॅलेजों में जिस स्तर और गुणवत्ता वाली लाईब्रेरी की आवश्यकता है वह नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय की लाईब्रेरी व उसके काॅलेजों की लाईब्रेरी से देश के अन्य लाईब्रेरी की स्थिति का अनुमान नहीं लगा सकते। हमारी इसी देश में विभिन्न शिक्षण संस्थानों में दो तरह की लाईब्रेरी की दुनिया है। पहला तमाम तकनीक, डिजिटल, इंटरनेट आदि की सुविधा के साथ ओपैक आदि से लैस हैं वहीं दूसरी लाईब्रेरी बुनियादी जरूरतों की दृष्टि से काफी पीेछे हैं। जहां न किताबें हैं और न किताबों को पाठकों तक पहुंचाने वाला लाईब्रेरियन। वह महज किताबों का स्टोर रूम तो हो सकता लाईब्रेरी नहीं कही जा सकती।
दिल्ली के सरकारी स्कूलों में तो लाईब्रेरी दिखाई दे जाती हैं। साथ ही बच्चों को लाईब्रेरी के पीरियड में लाईब्रेरी में बैठे, पढ़ते भी देखे जा सकते हैं। इन स्कूली लाईब्रेरी में किताबें इश्यू और रिटर्न भी होती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो यहां लाईब्रेरी सिर्फ कहने के लिए नहीं बल्कि यहां पाठक और किताबें दोनों ही मिलती हैं। मगर दिल्ली के बाहर निकलते ही सरकारी स्कूलों में लाईब्रेरी सचमुच आकाशीय अवधारणा दिखाई देती है। रजिस्टर में किताबें हैं। इश्यू-रिटर्न रजिस्टर उठा कर देखेंगे तो पता चलेगा पिछले साल एक दो किताबें ही इश्यू हुईं थीं। इससे अंदाज लगाना कठिन नहीं है वह पुस्तकालय इस हाल में है।
दिल्ली पब्लिक लाईब्रेरी, नेशनल लाईब्रेरी कोलकाता और चार महानगरों के नेशनल लाई्रब्रेरी को एक नेटवर्क में जोड़ने काम 1999 में शुरू हुआ था। इसका मकसद था कि अहमदाबाद, चेन्नैई व अन्य महानगर में बैठा यूजर दूसरे शहर की लाईब्रेरी का इस्माल कर सके। इन नेटवर्क में लाईब्रेरी की सामग्री साझा करने की संस्कृति विकसित की जानी थी। ठीक उसी तर्ज पर चारों महानगरों के विश्वविद्यालयों की लाईब्रेरी के बीच भी पुल निर्माण का काम शुरू किया गया था। देखने और समझने की बात यह है क्या इस नेटवर्क पर कार्य हो रहे हैं या केवल सरकारी घोषणा भर था। वैसे यह परियोजना अपनी परिकल्पना में ठीक है, लेकिन इसपर आने वाले लागत का कितना सदुपयोग हो पाया है यह अलग विमर्श का मुद्दा है।
लाईब्रेरी को डिजटलाइज करना और पुरानी एवं दर्लभ पुस्तकों का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है। इस ओर हमारा प्रयास होना चाहिए। किस तरह से पुराने दस्तावेजों को संरक्षित किया जाता है इसे जाने बगैर हम अपनी धरोहरों को आने वाली पीढ़ी के लिए सुरक्षित नहीं रख सकते। यदि हम चाहते हैं कि बच्चों में अपनी लाईब्रेरी के प्रति जिज्ञासा पैदा हो। किताबों की दुनिया से बच्चे परिचित हों तो एक यह तरीका हो सकता है कि पुस्तकालय विज्ञान को स्कूल स्तर पर पढ़ाया जाए। ताकि बच्चों में पुस्तकों के प्रति ललक और रूचि पैदा हो सके। आज लाईब्रेरी प्रोफेसनल्स की बेहद कमी है। जिस तरह से शिक्षण व्यवसास में लोग अंतिम विकल्प के तौर पर आते हैं उसी तरह पुस्तकालय विज्ञान के क्षेत्र में बतौर लाईब्रेरियन बनाना अंतिम विकल्प होता है।
हमें पुस्तकालय और पुस्तक सुस्कृति को बचाना है तो इसे पाठ्यक्रमों और आम जीवन से जोड़ना होगा। दूसरा इस क्षेत्र में रूचि रखने वालों को प्रोत्साहित करना होगा। पुस्तकालय विज्ञान की दुनिया भी बेहद रोचक और चुनौतिपूर्ण है। लाईब्रेरियन न केवल वेतन की दृष्टि से बल्कि पद की नजर से भी स्कूलों मंे टीजीटी और काॅलेज, विश्वविद्यालयों में अध्यापक और प्रोफेसर के समकक्ष माना जाता है। इस क्षेत्र में भी उच्च अध्ययन करने की पूरी गंुजाईश है।
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